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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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परिशिष्ट

 

डॉ० स० राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक 'एमिनेण्ट ओरिएण्टलिस्ट्स' (लब्धप्रतिष्ठ प्राच्यविद्) में लिखा है कि तिलक का साहित्यिक कार्य एक बेरोजगार राजनीतिज्ञ का परम्परागत मनबहलाव नहीं है। प्राच्य अध्ययन की ओर उनका स्वाभाविक झुकाव रहा है। इसलिए हमें उनकी रचनाओं में एक नौसिखिये की असंगति एवं अस्थिरता के स्थान पर एक अनुभवी विद्वान के ठोस ज्ञान और पैनी दृष्टि के दर्शन होते हैं।'' तिलक की विद्वत्ता का क्षेत्र वैदिक शोध और हिन्दू दर्शन था। कुछ छिटपुट रचनाओं के अतिरिक्त, उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं-'दि ओरियन' (1893 में प्रकाशित), 'दि आर्कटिक होम इन वेदाज' (1903) और 'गीता रहस्य' (1915)। शुरू के पृष्ठों में इनका संक्षिप्त उल्लेख किया जा चुका है। इनमें से प्रत्येक ग्रन्थ से विचारकों को नई दिशा मिली। जिन्हें इन रचनाओं की विषय वस्तुओं में दिलचस्पी है, वे पहले इनको पढ़े बिना आगे नहीं बढ़ सकते। सामान्य पाठक के लिए तिलक के ही शब्दों में उनके तर्क यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

'दि ओरियन'

''जब मैं 'भगवद् गीता' पढ़ रहा था, तब मुझे लगा कि हम इस उक्ति से, कि 'वह मासों में मार्गशीर्ष थे', महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाल सकते हैं। परिणामस्वरूप मैंने आदिम वैदिक पंचांग (कैलेंडर) का पता लगाया...। अब इसे आमतौर पर स्वीकार कर लिया गया है कि मिस्र की सभ्यता अत्यन्त प्राचीन है। लेकिन विद्वान लोग अभी भी वैदिक सभ्यता का आरम्भ काल 2,400 ईसवी पूर्व से पहले मानने में हिचकते हैं। मैंने यह दिखलाने की कोशिश की है कि 'ऋग्वेद' में जिन परम्पराओं का उल्लेख किया गया है, उनसे यह सिद्ध हो जाता है कि उनका काल 4,000 ईसा पूर्व से बाद का नहीं है, जब वसंत विषुव (वनेल इक्विनॉक्स) मृगशिरा नक्षत्र में था या जब लुब्धक (डॉग स्टार) से विषुवीय वर्ष का श्रीगणेश होता था। इस सिलसिले में अनेक वैदिक पाठों और गाथाओं को उद्धृत किया गया है तथा पहली बार उनकी बुद्धिमत्तापूर्ण व्याख्या की गई है, जिससे बाद के संस्कृत ग्रन्थों में निहित कथाओं तथा कर्मकाण्डों पर प्रकाश पड़ता है। मैंने आगे यह भी दिखलाने की चेष्टा की है कि किस तरह से इन गाथाओं की पुष्टि ईरानी और यूनानी गाथाओं तथा परम्पराओं से होती है।

''आर्य सभ्यता का प्राचीनतम काल हम अदिति या पूर्व-मृगशिरा (प्रि-ओरियन) काल को मान सकते हैं और मोटे तौर पर इसकी काल-सीमाएं 6,000 से 4,000 ईसा पूर्व ठहरा सकते हैं। मोटे तौर पर ओरियन काल, 4,000 से 2,500 ईसा पूर्व तक विस्तृत था-उस समय से, जब वसंत विषुव आर्द्रा के तारापुंज में था, तब तक, जबकि वह कृत्तिका के तारापुंज में आया। यह आर्य सभ्यता के इतिहास का सबसे अधिक महत्वपूर्ण काल है।

''तीसरा, अर्थात कृत्तिका काल, 2,500 से 1,400 ईसा पूर्व तक का है, अर्थात् यह बसंत विषुव के कृत्तिक के तारापुंज में होने के समय से वेदांग ज्योतिष में उल्लिखित काल तक का था। यह 'तैत्तिरीय संहिता' और अनेकानेक 'बाह्मणों' का काल था। प्राचीन संस्कृत साहित्य का चौथा और अन्तिम काल 1,400 से 500 ईसा पूर्व तक अर्थात बौद्ध धर्म के जन्म और उदय तक का काल है। यह 'सूत्रों' और दार्शनिक प्रणालियों का काल था। इसे वास्तविक बुद्ध-पूर्व काल कहा जा सकता है।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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